जयंती विशेष: जानें डॉ भीमराव अंबेडकर के संघर्ष और सामाजिक परिवर्तन के लिए योगदान को

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आज मनाया जाएगा बाबा साहब की 130 वीं जयंती 

डेस्क(khabargali)। अगर कोई इंसान, हिंदुस्तान के क़ुदरती तत्वों और मानव समाज को एक दर्शक के नज़रिए से फ़िल्म की तरह देखता है, तो ये मुल्क नाइंसाफ़ी की पनाहगाह के सिवा कुछ नहीं दिखेगा."

डॉक्टर भीमराम आम्बेडकर ने 31 जनवरी 1920 को अपने अख़बार 'मूकनायक' के पहले संस्करण के लिए जो लेख लिखा था, ये उस का पहला वाक्य है. तब से बहुत कुछ बदल चुका है. लेकिन, बहुत कुछ जस का तस भी है. आम्बेडकर और मीडिया का रिश्ता साथ-साथ चलता दिखता है. उन्होंने कई मीडिया प्रकाशनों की शुरुआत की. उनका संपादन किया. सलाहकार के तौर पर काम किया और मालिक के तौर पर उनकी रखवाली की. इस के अलावा, आम्बेडकर की बातों और गतिविधियों को उन के दौर का मीडिया प्रमुखता से प्रकाशित करता था.

डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर जिन्हें लोग बाबासाहेब अंबेडकर के नाम से भी जानते हैं, उनकी जयंती देश भर में मनाई जाती है। उनकी पहचान एक न्यायविद, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ और समाज सुधारक के रूप में होती है। डॉ. बी आर अंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को महू, मध्य प्रदेश में हुआ था। बाबासाहेब को संविधान निर्माता और आजाद भारत के पहले कानून मंत्री के रूप में जाना जाता है। भारत के संविधान के एक प्रमुख वास्तुकार, अम्बेडकर ने महिलाओं के अधिकारों और मजदूरों के अधिकारों की भी वकालत की। उनके योगदान को देखते हुए हर साल उनके जन्मदिन को अंबेडकर जयंती के रूप में मनाया जाता है।

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अंबेडकर को था अपनी जातिगत भेदभाव का अहसास 

अंबेडकर को बचपन से ही यह एहसास होता रहा कि उन्होंने एक अछूत परिवार में जन्म लिया है. उन्हें अपनी जाति के बच्चों के साथ कक्षा में एक अलग कोने में बैठना पड़ता था. उन्हें स्कूल में पानी पीने के लिए उच्च जाति के बच्चों पर निर्भर रहना पड़ता था. जब उच्च जाति के बच्चे नल चलाते थे, तभी आंबेडकर एवं निम्न जाति के बच्चे पाने पी सकते थे. स्कूल में पानी पीने के लिए अधिकतर आंबेडकर को स्कूल के चपरासी पर निर्भर रहना पड़ता था जिस दिन स्कूल का चपरासी छुट्टी पर रहता था, उस पूरे दिन आंबेकर को प्यासा रहना पड़ता था. उन्होंने आगे चलकर इस घटना को अपने लेखन में 'No Peon, No Water'के शीर्षक के साथ जगह दी है।

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स्वतंत्रत भारत के पहले कानून मंत्री 

इनका बचपन ऐसी सामाजिक, आर्थिक दशाओं में बीता जहां दलितों को निम्न स्थान प्राप्त था। दलितों के बच्चे पाठशाला में बैठने के लिए स्वयं ही टाट-पट्टी लेकर जाते थे। वे अन्य उच्च जाति के बच्चों के साथ नहीं बैठ सकते थे। डॉ. अम्बेडकर के मन पर इस छुआछूत का व्यापक असर पड़ा जो बाद में विस्फोटक रूप में सामने आया। स्वतंत्र भारत के पहले कानून और न्याय मंत्री के रूप में मान्यता प्राप्त, भारतीय गणराज्य की संपूर्ण अवधारणा के निर्माण में अम्बेडकर जी का योगदान बहुत बड़ा है।

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नेता के रुप में उनकी भूमिका 

समाज सुधारक डॉ० भीमराव अम्बेडकर एक राष्ट्रीय नेता भी थे। सामाजिक भेदभाव, अपमान की जो यातनाएं उनको सहनी पड़ी थीं, उसके कारण वे उसके विरुद्ध संघर्ष करने हेतु संकल्पित हो उठे। उन्होंने उच्चवर्गीय मानसिकता को चुनौती देते हुए निम्न वर्ग में भी ऐसे महान कार्य किये, जिसके कारण सारे भारतीय समाज में वे श्रद्धेय हो गये। स्पीच 3: डॉ० अम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को महू इन्दौर (म०प्र०) में हुआ था। उनके बचपन का नाम भीम सकपाल था। उनके पिता रामजी मौलाजी सैनिक स्कूल में प्रधानाध्यापक थे। उन्हें मराठी, गणित, अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान था। भीम को भी यही गुण अपने पिता से विरासत में मिले थे। उनकी माता का नाम भीमाबाई था। सार्वजनिक कुओं से पानी पीने व मन्दिरों में प्रवेश करने हेतु अछूतों को प्रेरित किया।

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हिन्दू कोड बिल और अंबेडकर 

1951 में बाबा साहब ने हिन्दू कोड बिल संसद में पेश किया। इस बिल के अनुसार पुरुषों को एक से ज़्यादा शादी करने पर प्रतिबंध लगाया गया, महिलाओं को तलाक लेने का अधिकार दिया गया और महिलाओं को पिता की संपत्ति में लड़कों के बराबर अधिकार दिया गया। संसद में इस बिल का विरोध हुआ।

हिन्दू महासभा के श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इस बिल को हिन्दू धर्म के लिए खतरा बताया। आरएसएस, हिन्दू महासभा जैसे हिंदूवादी संगठनों ने इस बिल का पुरजोर विरोध किया। नेहरू भी उनके दबाव के आगे इस बिल को संसद में पास नहीं करवा पाए। जब यह बिल संसद में पास नहीं हो पाया, तब बाबा साहब ने नेहरू जी की कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया और उनसे अपनी नाराज़गी ज़ाहिर की। बाद में यह बिल चार हिस्सों में विभाजित होने के बाद संसद से पास हुआ।

आज भी कुछ सवर्ण जाति के लोग ऊंची सोच को ऊंची जाति से जोड़ देते हैं। अगर सवर्ण महिलाएं भी इस नैरेटिव में विश्वास रखती हैं, तो वे इतिहास के साथ अन्याय कर रही हैं। वे यह भूल रही हैं कि जब ऊंची जाति के मर्द महिलाओं को पीछे छोड़कर मर्दवादी समाज को आगे ले जाना चाहते थे, तब एक दलित खुद लेटकर उनके और उनके अधिकारों के बीच पुल बन गया था।