रमेश नैयर: वे पंचभूत से मुक्त हुए हैं, कर्म के हस्ताक्षर अमर हैं, इसलिए शोक व्यक्त करना संसारी होगा

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बरुण सखाजी की कलम से

ख़बरगली @ सहित्य डेस्क

वरिष्ठ पत्रकार श्री रमेश नैयर जी के निधन की खबर के बाद से प्रदेश के पत्रकारों और साहित्यकारों की प्रतिक्रिया आ रही है; इसी क्रम में पत्रकार बरुण सखाजी ने नैयर जी से जुड़े अपने संस्मरण ख़बरगली से साझा किया है जिसे हम जस का तस प्रकाशित कर रहे हैं-

रायपुर की एक हॉटल में दूरदर्शन में बेसिल की ओर से एक इंटरव्यू चल रहा था। इंटरव्यू के पैनल में 3 लोग थे। एक थे जिन्हें मैं मध्यप्रदेश में रहकर भी जब-तब पढ़ रहा था। उस वक्त के संसाधनों में फिल्मी शख्सियतों को छोड़कर बाकियों को चेहरे से कम उनके गुणों से अधिक पहचाना जाता था। मैं भी उन्हें उनकी कलम के लिए जानता था। ट्रिब्यून से लेकर दैनिक भास्कर तक में उन्हें परोक्ष रूप से पढ़ा था। किसी ने मुझे बताया इस इंटरव्यू पैनल में रमेश नैयर भी हैं। मुझे नाम सुना सा लगा और तुरंत दिमाग में आया, मैं तो इन्हें पढ़, समझ रहा हूं। जब इंटरव्यू पैनल के सामने था तो सवालों की बौछार थी, लेकिन रमेश जी बौछार के साथ ही व्यक्तित्व को भी परख रहे थे। उन्होंने मुझसे पूछा दलाईलामा के निर्वासन और चीन-भारत संबंध पर कुछ बताओ।

सच बताऊं तो मैं इस विषय से बेखबर था। किंतु नैयर जी के सहयोगी रवैये ने मुझे कुछ कच्चा-पक्का बोलने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने सिर्फ एक वाक्य बोला, याद करो पचास के दशक का इतिहास। यह एक ऐसा क्लू था जो मुझे अपनी सामान्य बुद्धि और अखबारी खबरों से प्राप्त सूचनाओं का मिश्रण बनाने के लिए पर्याप्त था। मैंने जवाब देना शुरू किया। अंत में इसमें मेरा चयन हुआ। मुझे रायपुर दूरदर्शन दिया गया। नतीजों तक नैयर जी को नहीं पता था कि मैं उन्हें इस तरह से जानता हूं। वे जब गणपति हॉटल के बाहर लॉबी में आए तो मैंने प्रणाम करते हुए परिचय दिया। स्वाभाविक था परिचय ऐसा नहीं था जिसे पहचाना जा सकता। लेकिन उन्होंने पूरी गर्मजोशी से मुझे पहचानने जैसा ट्रीट किया। भोपाल से आने का सुनकर कुछ वहां के लोगों का जिक्र किया। मैं और सहज हुआ तो उन्होंने राज खोला। वे बोले, बरुण मैं जानता हूं तुम्हे दलाईलामा के निर्वासन के प्रकाश में भारत-चीन संबंधों के बारे में जानकारी पुख्ता नहीं थी। लेकिन तुम्हारी सहजता और विषय को समझ सकने के आत्मविश्वास की कद्र की जानी चाहिए। वे बोले, मैं मानता हूं कि यह प्रश्नावली से प्राप्त उत्तरों वाला इंटरव्यू नहीं होता, बल्कि व्यक्तित्व की परख और ब्रॉडकॉस्ट एक्जेक्यूटिव के लिए चाही गई सामान्य अवेयरनेस परखने का इंटरव्यू होता है। जाओ काम करो और पढ़ाई और बढ़ाओ। नैयर सर का  इतना कहना मेरे लिए आत्मविश्वास बन गया।

कालांतर में दूरदर्शन तो मैंने ज्वाइन नहीं किया, किंतु छत्तीसगढ़ में बस गया। फिर नैयर सर से सतत बात होती रही। मैं जाता तो वे बहुत आत्मीयता से मिलते। घर के एक सदस्य की तरह बिठाते और विभिन्न विषयों पर बड़ी आत्मीयता से बात करते।

मेरी पहली किताब परलोक में सैटेलाइट आई तो उन्होंने सुझाव दिया कि इसका संपादन भारतीय मूल के ब्रिटिश हिंदी व अंग्रेजी के लेखक संदीप नैयर जी से करवाओ। संदीप जी से मेरा दोस्ताना उनकी पहली किताब के वक्त से था ही। संदीप, नैयर जी के पुत्र हैं तो स्वाभाविक रूप से मेरे लिए सम्मानीय थे ही। उन्होंने किताब को संपादित किया। जब मैं भारत के अग्रणी समाचार पत्र में संपादक बना तो रमेश जी ने फोन करके बधाइयां दी। उन्होंने मुझसे एक वायदा भी लिया। मैं बिलासपुर में ज्वाइन करके गया था। नैयर जी ने कहा, आजकल संपादकों के ऊपर काम का बोझ अधिक होता है। वे प्रबंधन के राजनीतिक ताल्लुकात, रिश्तों को प्राथमिकता देते हुए लिखने, पढ़ने से दूर हो जाते हैं। मैं उम्मीद करूंगा तुम अपनी कलम को चलाते रहोगे। उन्होंने यह भी कहा, कि मैं कलम को किसी दिशा विशेष में चलाने की बात नहीं कह रहा, बल्कि उस आदमी के पक्ष में खड़े रहने को कह रहा हूं, जिसे तुम अपनी दृष्टि से सबसे कमजोर और अन्याय से ग्रस्त समझो और मुझे तुम्हारी दृष्टि पर पूरा भरोसा है।

नैयर सर से जुड़े  अनेक संस्मरण हैं। वे नौजवानों को प्रोत्साहित करने वाले। अपनी राजनीतिक तटस्थता के स्थापित मानदंड। पत्रकारिता के सिद्धहस्त पुरोधा। एक सजग नागरिक के अतिरिक्त विषयों पर संजीदगी  से जीवंत तादात्म बनाकर चलने वाले अभूतपूर्व व्यक्तित्व थे। आज उनका यूं जाना शोक का इसलिए कारण नहीं होगा, क्योंकि वे एक संस्था थे, समय थे, समय पर दर्ज अमिट हस्ताक्षर। वे पंचभूत से मुक्त हुए हैं, कर्मतत्व से अमर हैं। अमर तत्वों का शोक कैसा?

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