लिखना जुनून या जरूरत

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ख़बरगली @ साहित्य डेस्क

अब जब नोटफ्री आंदोलन के ज़रिये इस विषय पर ज़ोरदार चर्चा छिड़ चुकी है और आंदोलन के समर्थकों द्वारा बहुत आक्रामक और उपहासपूर्ण स्वर में इस विषय में तर्क दिए जा रहे हैं तो इसके कुछ और केंद्रीय आयामों पर बात कर लेना चाहिए। यहाँ पर सबसे बुनियादी प्रश्न यह है कि लेखक क्यों लिखता है? क्या वह आजीविका के लिए लिखता है? मान लीजिये कोई व्यक्ति आजीविका के लिए कोई कार्य करता है। वह एक दुकान लगाता है। उससे अगर कोई भलामानुष पूछे कि यह कार्य क्यों करते हो, तिस पर वह जवाब देगा- रोज़ी-रोटी के लिए। अगर उससे कहा जाए कि तुम्हें जितनी आमदनी होती है, वह मुझसे ले लो, लेकिन यह दुकान मत लगाओ- तब वह क्या करेगा? सम्भव है वह पैसा ले ले और दुकान ना लगाए। किंतु अगर लेखक से कहा जाए कि फलां पुस्तक के प्रकाशन से तुम्हें जितनी आमदनी होगी, वह पैसा मुझसे ले लो किंतु पुस्तक मत लिखो- तब क्या लेखक पुस्तक नहीं लिखेगा? अगर वह पुस्तक पैसों के लिए ही लिखी जा रही है, तो सम्भव है वो पैसा ले ले और एक अरुचिकर कार्य करने से अपनी जान छुड़ाए। पर उसके बाद यह भी सम्भव है कि वह अपने समय और परिश्रम का उपयोग वह लिखने में करे, जो वह वास्तव में लिखना चाहता है। इस दृष्टान्त से हमें यह भेद दिखलाई देता है कि लेखन और आजीविका में कार्य-कारण का सीधा सम्बंध नहीं है, भले लेखन से आजीविका मिल सकती हो। किंतु लेखन की तुलना आजीविका के दूसरे साधनों से इसलिए नहीं की जा सकती, क्योंकि जहाँ वो दूसरे साधन विशुद्ध रूप से आजीविका के लिए होते हैं, वहीं लेखन किसी और वस्तु के लिए भी होता है।

मूलतः मक़सद यह स्पष्ट करना है कि लेखक का प्राथमिक दायित्व क्या है। लेखक का प्राथमिक दायित्व है लिखना और अपने लिखे को पाठकों तक पहुँचाना। एक बार यह दायित्व पूरा हो जाए, उसके बाद उसे अपने लेखन से जो धन, मान-सम्मान, सुख-सुविधा, उपहार आदि मिलते हैं, वो अतिरिक्त है, बोनस है। किंतु लेखक जब कोरे काग़ज़ का सामना करता है तब उसके सामने यह प्रश्न नहीं होता कि लिखने से कितना धन-मान मिलेगा, बशर्ते वो बाज़ारू लेखक ना हो। उसके सामने एक ही संघर्ष होता है और वो यह कि जो मेरे भीतर है- विचार, कल्पना या कहानी- उसे कैसे काग़ज़ पर उतारूं कि उसमें मेरा सत्य भी रूपायित हो जाए और पाठक तक भी वह बात किसी ना किसी स्तर पर सम्प्रेषित हो जाए।

यह कल्पना करना ही कठिन है कि आज से बीस साल पहले तक लेखक के लिए प्रकाशन कितना दुष्कर था। वास्तव में इंटरनेट के उदय से पहले लेखन का इतिहास अप्रकाशित पाण्डुलिपियों के ज़ख़ीरे से भरा हुआ है। आज लिखने की सुविधा हर किसी को प्राप्त है- पुस्तक ना सही तो पोस्ट ही सही, किसी पोस्ट पर कमेंट ही सही- किंतु आज से बीस साल पहले प्रकाशित लेखन एक लगभग एक्सक्लूसिव परिघटना थी। तब लेखन का सबसे प्रचलित माध्यम चिटि्ठयाँ ही थीं और लोग बड़े मनोयोग से पत्र लिखते थे। कोई लेख, कविता या कहानी लिखी तो उसे किसी पत्रिका या समाचार-पत्र को भेजते थे, उसे प्रकाशित करने का निर्णय सम्पादक के पास सुरक्षित रहता था। कोई पुस्तक लिखी तो उसकी पाण्डुलिपि भेजते थे, जिसके प्रकाशन का निर्णय प्रकाशक के पास सुरक्षित था। सम्पादक और प्रकाशक का वर्चस्व था, लगभग एकाधिकार था- इस प्रक्रिया में बहुत कम चीज़ें ही प्रकाशित हो पाती थीं। अख़बार में पाठकों के पत्र स्तम्भ में प्रकाशित होना भी तब बड़ी बात होती थी। आज जब सोशल मीडिया ने लेखक के लिए प्रकाशन सर्वसुलभ बना दिया है, उसे अपने लिखे पर तत्काल पाठक मिलते हैं और पाठकों की बड़ी संख्या उसकी पुस्तकों के प्रकाशन का पथ-प्रशस्त करती है- तब लेखक के अस्तित्व का प्राथमिक प्रयोजन- यानी अच्छे से अच्छा लिखना और अधिक से अधिक पाठकों तक पहुँचना- कहीं सरलता से सध जा रहा है। इसके लिए उसके मन में कृतज्ञता का भाव होना चाहिए। तब लेखक का यह कहना कि इसके लिए मुझको पैसा चाहिए, इसीलिए एक अर्धसत्य है क्योंकि इसमें यहाँ पर वह इस बात को छुपा ले जा रहा है कि उसके लिए प्रकाशित होना और पाठकों तक पहुँचना कितना बड़ा सौभाग्य है। और अगर यह ना होता तो वह अपनी रचना को लिए भीतर ही भीतर घुटता रहता।

लेखन की प्रकृति ऐसी है कि उसे दूसरी लोकप्रिय कलाओं- जैसे सिनेमा, रंगमंच, नृत्य या संगीत- की तुलना में कम प्रसार मिलेगा। शेखर एक जीवनी पढ़ने और सराहने के लिए एक विशेष प्रकार की शैक्षिक पृष्ठभूमि की आवश्यकता है, जो कोई नाच-तमाशा देखने, गाने-बजाने का आनंद लेने के लिए ज़रूरी नहीं। एक चलताऊ उपन्यास तक पाठक को खींचकर लाना भी एक सामान्य दर्शक को सिनेमाघर में ले जाने की तुलना में कहीं अधिक दुष्कर है। एक लेखक अपनी कला से कभी भी उतना सफल और धनाढ्य नहीं हो सकता, जितना कि एक फ़िल्म अभिनेता, खिलाड़ी, संगीतकार या नर्तक हो सकता है, बशर्ते देशकाल-परिस्थितियां उसके पक्ष में हों।

नोटफ्री आंदोलन के कर्णधार इन तमाम तर्कों और तथ्यों को नज़रंदाज़ कर देते हैं। इतना ही नहीं, वो यह कहकर परिप्रेक्ष्यों को विकृत भी करते हैं कि लेखक जब किसी कार्यक्रम में जा रहा है तो वो अपना समय दे रहा है, जिसकी क़ीमत उसे मिलना चाहिए। जैसे कि जो आयोजक वह कार्यक्रम कर रहा है, उसके समय का कोई मूल्य नहीं है, या वह निठल्ला है? लेखक यह जतलाता है कि आयोजक को उसकी ज़रूरत है, पर वो यह छुपा जाता है कि उसे भी आयोजक की उतनी ही ज़रूरत है! उसे भी मंच चाहिए, विज़िबिलिटी चाहिए, नए पाठक और नए प्रशंसक चाहिए, उसे भी महत्व चाहिए, जो उस कार्यक्रम से उसे मिल रहा है। यह कार्यालय में काम करने जैसा नीरस नहीं है, जो लेखक यह तर्क देता है कि वह कार्यालय से छुट्‌टी लेकर आ रहा है, इसलिए उसे इसके ऐवज़ में पैसा चाहिए। लेखक को वैसे कार्यक्रमों में जो मान-सम्मान, महत्व-प्रचार मिलता है, उसे हासिल करना आज लाखों का सपना है (और जब लेखक युवा था और अख़बारों में अपनी कविताएं प्रकाशित करने भेजता था और उनके छपने की प्रतीक्षा करता था, तब यह उसका भी सपना हुआ करता था), लेकिन इस सपने को जीने का अवसर जब उसे मिलता है, तो लेखक यह जतलाता है मानो इसका कोई मूल्य ही ना हो, जैसे इसके लिए उसे स्वयं कुछ ना चुकाना हो, उलटे उसे इसके बदले में पैसा चाहिए?

जब लेखक यह कहता है कि मैं पैसा लिए बिना किसी कार्यक्रम में नहीं जाऊंगा तो वह मन ही मन यह रूपरेखा भी बनाता ही होगा कि कितना पैसा? वह अपना एक रेट तय करता होगा। एक बार यह रेट तय होते ही यह निश्चित हो जाता होगा कि कुछ ही आयोजक उसे अफ़ोर्ड कर सकेंगे। किंतु ये जो आयोजक उसे अफ़ोर्ड करेंगे, वो लेखक में निवेश की गई राशि का रिटर्न कैसे पाएँगे (क्योंकि कोई भी लन्च फ्री में नहीं मिलता, यह नोटफ्री आंदोलन के कर्णधारों का प्रिय वाक्य है)। क्या कोई पूँजीपति अपनी जेब से पैसा लगाकर लेखक को एक दिन की वह सितारा-हैसियत दिलाएगा, या वह किन्हीं प्रायोजकों की मदद लेगा? ये प्रायोजक तब उस कार्यक्रम को कैसे प्रभावित करेंगे? क्या लेखक कविता या कहानी-पाठ के बीच में रुककर किसी प्रायोजक के उत्पाद (गुटखा या जूते?) का विज्ञापन भी करेगा? क्योंकि जब पैसे को ही सबकुछ मान लिया तो शर्म-लिहाज़ कैसी? जो आयोजक लन्च दे रहा है, होटल में रूम बुक कर रहा है, हवाई जहाज़ का टिकट दे रहा है, प्रोग्राम के लिए ऑडिटोरियम बुक कर रहा है और आपको लिफ़ाफ़ा भी दे रहा है- वो ख़ुद क्या यह सब फ्री में करेगा, क्या नोटफ्री में उसका स्वयं का विश्वास नहीं होगा?

मैं देख रहा हूँ कि नोटफ्री आंदोलन युवाओं में विशेषकर लोकप्रिय हो रहा है, क्योंकि ये पीढ़ी ही येन-केन-प्रकारेण सफलता की भाषा में सोचती है। किंतु दौर बदलने से दस्तूर नहीं बदल जाता। लेखक क्यों लिखता है, किसके लिए लिखता है, लेखक लेखन से क्या चाहता है- ये बुनियादी प्रश्न अपनी जगह पर तब भी क़ायम रहते हैं- इन्हें कोई बदल नहीं सकता। मेरी पुस्तक बिके और मुझे उसका पैसा मिले- यह एक बात है- और मेरी पुस्तक कितनी बिकी, उससे मुझे कितना पैसा मिला, यही मैं रात-दिन सोचता रहूँ और पैसा कमाने के लिए ही लिखूँ- ये एक नितांत ही दूसरी बात है।

कोई आयोजक मुझे बुलाए, मान-सम्मान-मंच प्रदान करे और चलते-चलते अपनी सामर्थ्य से मुझे कुछ पैसा भी दे दे- यह एक बात है- किंतु मुझे पैसा दिया जाएगा तो ही मैं आऊँगा, यह भी नहीं देखूँगा कि मुझे बुलाने वाला कौन है, उसकी क्या क्षमता है, उसकी क्या प्रतिष्ठा है, उसके पास कितने उच्चकोटि के निष्ठावान श्रोता हैं- यह एक दूसरी ही बात है। और इन दोनों बातों में ज़मीन-आसमान, आकाश-पाताल का भेद है! जिस लेखक में इन दोनों में अंतर करने का विवेक नहीं, वो समाज को क्या मूल्य देगा? उसको तब कोई दुकान ही लगा लेना चाहिए, लेखन वग़ैरा उसके बस का रोग नहीं।

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- प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

लखनऊ, उत्तर प्रदेश