" अग्निपर्व: शान्तिनिकेतन " एक अलक्षित डायरी की चर्चा जीतेश्वरी साहू द्वारा

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हंगेरियन महिला रोज़ा हजनोशी गेरमानूस द्वारा लिखित डायरी जिसमें 1929 से 1931 तक का प. बंगाल स्थित शान्तिनिकेतन ही नहीं तत्कालीन भारत के अनेक स्थलों एवं घटनाओं का दुर्लभ इतिहास दर्ज है

ख़बरगली@साहित्य

डेस्क हंगरी की रोज़ा हजनोशी गेरमानूस (1892-1944) शान्तिनिकेतन में अप्रैल-1929 से जनवरी-1932 तक रहीं. उनकी प्रवास डायरी हंगरी में 'Bengali Tüz' और फिर अंग्रेजी में 'Fire of Bengal' के नाम से प्रकाशित हुई. हिंदी में इसका अनुवाद कार्तिक चंद्र दत्त द्वारा 2013 किया गया. यह डायरी तत्कालीन भारत के सामाजिक-राजनीतिक हलचलों का सूक्ष्मता से ज़िक्र करती है. इसकी चर्चा कर रहीं हैं जीतेश्वरी साहू.

हंगेरियन महिला रोज़ा हजनोशी गेरमानूस द्वारा लिखित डायरी ‘अग्निपर्व: शान्तिनिकेतन’ ऐसी महत्वपूर्ण डायरी है जिसमें 1929 से 1931 तक का पश्चिम बंगाल स्थित शान्तिनिकेतन ही नहीं बल्कि भारत के अनेक स्थलों एवं घटनाओं का दुर्लभ इतिहास दर्ज है, जो दुर्भाग्य से वर्षों तक प्रकाशित होने से वंचित रही थी. सन 1932 में भारत से वापस अपने देश हंगरी लौटने के बाद रोज़ा के पास अमूल्य धरोहर के रूप में उनकी लिखी हुई 18 डायरियां थीं, जिन्हें वह भारत में रहते हुए इन तीन वर्षों में नियमित रूप से लिखती रहीं थीं. 18 खंडों में लिखी हुई रोज़ा की डायरी के प्रकाशन की घटना भी अपने आप किसी त्रासदी से कम नहीं है. यह सिर्फ डायरी नहीं, एक सफ़रनामा, समसामयिक इतिहास और रोमांचक उपन्यास भी है- इन सबका रंगमंच मुख्यतः शान्तिनिकेतन है, और चरित्र हैं: रवींद्रनाथ ठाकुर, महात्मा गांधी, शांतिनितेकन के तत्कालीन देशी और विदेशी अध्यापक और छात्र और दूसरे अनेक.”

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हंगरी लौटने के 13 वर्षों के पश्चात यह डायरी उनके पति ज्यूला गेरमानूस के अथक परिश्रम से सन 1944 में ‘बेंगाली तूज’ के नाम से हंगरी में प्रकाशित हुई. लेकिन दुर्भाग्य से प्रकाशन के दो वर्ष पूर्व ही रोज़ा हजनोशी गेरमानूस का निधन हो चुका था. हंगरी में प्रकाशित यह डायरी 50 वर्षों के बाद पहली बार अंग्रेजी में सन 1993 में ढाका (बांग्लादेश) से प्रकाशित हुई. इसका अंग्रेजी अनुवाद एक हंगेरियन महिला ईवा वीमर द्वारा किया गया था. दुर्भाग्य से ईवा वीमर भी इस किताब के प्रकाशन के आठ वर्ष पूर्व ही कालकवलित हो गईं थीं. अंग्रेजी अनुवाद के प्रकाशन में ईवा के पति ग्रांट वीमर का योगदान भी बेहद मूल्यवान रहा है. Roza Hajnoczy Germanus इस किताब का हिंदी अनुवाद कार्तिक चंद्र दत्त द्वारा सन 2013 में किया गया. कार्तिक चंद्र दत्त उस समय साहित्य अकादमी, नई दिल्ली से पुस्तकाध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त होकर दिल्ली में रह रहे थे. अनुवाद के समय उनकी आयु 74 वर्ष की हो चुकी थी उन्होंने इस दुर्लभ ग्रंथ का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद किया जिसे राजकमल प्रकाशन ने सन 2013 में ’अग्निपर्व: शान्तिनिकेतन’ के नाम से प्रकाशित किया.

यह भी दुर्भाग्य ही है कि ‘अग्निपर्व: शान्तिनिकेतन’ के हिंदी प्रकाशन की जैसी चर्चा हिंदी में होनी चाहिए थी वैसी नहीं हुई है. एक हंगेरियन विद्वान के अनुसार, इस पुस्तक की बदौलत रवीन्द्रनाथ ठाकुर, शान्तिनिकेतन और महात्मा गांधी, हंगरी के घर-घर में जाने-पहचाने जाने लगे थे. हंगरी में रोज़ा हजनोशी गेरमानूस के इस किताब को क्लासिक साहित्य में स्थान दिया गया है.

अग्निपर्व: शान्तिनिकेतन’ की लेखिका रोज़ा हजनोशी गेरमानूस जो हंगरी के एक छोटे से कस्बे में रहतीं थीं, वह अपने इस्लामी इतिहास के विद्वान पति ज्यूला गेरमानूस के साथ सन 1929 में भारत आईं थीं. पति ज्यूला गेरमानूस को कविगुरु रवींद्रनाथ ठाकुर ने शान्तिनिकेतन में इस्लामी इतिहास के प्राध्यापक के पद पर तीन साल के अनुबंध पर नियुक्त किया था. रोज़ा के लिए अपने पति के साथ भारत की यात्रा कोई ख़ुशी या उमंग की बात नहीं थी. क्योंकि अनेक यूरोपीय नागरिकों की भांति भारत उनके लिए किसी अजूबे से कम नहीं था.

 रोज़ा हजनोशी गेरमानूस अपने पति ज्यूला गेरमानूस के साथ पिल्सनर नामक पानी जहाज से भारत के लिए रवाना होतीं हैं और डायरी लेखन की शुरूआत भी जहाज से ही हो जाती है. लगभग 18 दिनों की यात्रा पूरी कर 1929 के अप्रैल के अंत में रोज़ा पति ज्यूला के साथ कोलकाता से रेलगाड़ी द्वारा शान्तिनिकेतन पहुचती हैं. पिल्सनर जहाज में यात्रा के दौरान रोज़ा की मुलाकात ऐसे अनेक चरित्रों से होती है जिनका संबंध किसी न किसी रूप में भारत से रहा है, उनमें सबसे प्रमुख अमिय चक्रवर्ती और उनकी पत्नी हेलगा हैं जो इस डायरी के केन्द्रीय पात्र भी हैं. यह पुस्तक रोज़ा की दिन-प्रतिदिन की लिखी हुई डायरी है जिसमें उन्होंने भारत में बिताए अपने हर अच्छे-बुरे समय को दर्ज करती रहीं हैं.

‘अग्निपर्व: शान्तिनिकेतन’ रोज़ा द्वारा लिखित ऐसा महत्वपूर्ण दस्तावेज है जिसमें 1929 से 1931 के शान्तिनिकेतन और भारत को उसकी पूरी सुंदरता और विद्रूपता के साथ देखा एवं समझा जा सकता है. इस डायरी के महत्व पर प्रकाश डालते हुए हिंदी अनुवादक कार्तिक चंद्र दत्त ने एक जगह लिखा है. “ इस किताब के मुख्य किरदार में लेखिका और उनके पति ज्यूला के अलावा जो प्रमुख चरित्र हैं उनमें रवींद्रनाथ ठाकुर पूरी पुस्तक के केन्द्र में है, महात्मा गांधी का सत्याग्रह आंदोलन और नमक सत्याग्रह, अमिय चक्रवर्ती जो आक्सफोर्ड (इंग्लैंड) से उच्च शिक्षा प्राप्त बंगाली ब्राह्मण हैं और शान्तिनिकेतन में अंग्रेजी के प्रोफ़ेसर हैं और यूरोपीय सभ्यता, संस्कृति के हिमायती भी, हैमंती (हेलगा) डेनमार्क की एक सुंदर युवती जो कोपेनहैगन में अमिय चक्रवर्ती से विवाह के बाद शान्तिनिकेतन आईं थीं, गेरट्रुड रूडिगर जर्मन युवती और पर्वतारोही, मार्क कॉलिन्स प्रसिद्ध भाषाविद और विद्वान, नंदलाल बोस बंगाल शैली के प्रसिद्ध चित्रकार, विधुशेखर शास्त्री संस्कृत के वेदांत दर्शन के प्रकांड पंडित जो शान्तिनिकेतन विश्वविद्यालय के डीन थे आदि. इन प्रमुख चरित्रों के अलावा अनेक देशी-विदेशी चरित्र भी हैं जो उस समय शान्तिनिकेतन पढ़ने, पढ़ाने और बहुत कुछ देखने-समझने आए हुए थे.

शुरू में रोज़ा को शान्तिनिकेतन रास नहीं आता है उन्हें अपने देश की याद सताती है. उन्हें लगता है जैसे वह सब कुछ छोड़ कर वापस अपने देश चली जाएं, पर शान्तिनिकेतन पहुंचने के लगभग 15-20 दिनों बाद उन्हें उनकी मां का पत्र मिलता है जिसे पढ़कर रोज़ा दुखी हो जाती हैं. बाद में ये पत्र धीरे-धीरे रोज़ा के शान्तिनिकेतन में रहने के कारण बनते गए और लगभग हर रविवार को उनके माता-पिता द्वारा लिखे गए पत्र उन्हें मिलने लगे थे जिनसे उनका मन भारत में लग गया. उस समय रोज़ा के अलावे शान्तिनिकेतन में किसी अन्य हिंदुस्तानी के पास पत्र नहीं आता था. इसलिए वह अपनी डायरी में लिखतीं हैं.

“हिंदुस्तानियों के पास चिट्ठियां नहीं आतीं. उनके लिए बाहरी दुनिया की छोटी-छोटी घटनाएं, केवल मात्र मूसलाधार बारिश में छोटी-छोटी बूंदों के समान है. यह पूरा जीवन ही एक छोटा-सा सक्रांति काल है, अनंत भविष्य के जीवनकाल में. एक छोटे-से तारे की तरह अनंत आकाश में. हमें बंगाल के सूखे मैदानों की चिंता है, लेकिन वे लोग क्षितिज के पार अपने अंतरात्मा को खोजते हैं. उनके लिए समय की कोई सीमा नहीं क्योंकि जीवन न तो आरंभ है और न ही अंत. जो पिछले हजारों सालों से विद्यमान है आज भी उसका अस्तित्व है और इस छोटे-से ‘आज’ में हजारों वर्षों के सुख-दुख समाहित है.”

रोज़ा के भीतर चीजों की बारीकियों को देखने, समझने और जानने की तीक्ष्ण मेधा थी. अपनी इस डायरी में लेखिका ने हिंदुस्तानियों के अंतरात्मा की इस तरह व्याख्या की है जो अन्य लेखकों या कवियों के यहां विरल है. साथ ही रोज़ा के इस रोज़नामचे में हिंदुस्तान के इतिहास के वे अनेक दृश्य और घटनाएं दर्ज हैं जो संभवतः किसी किताब में पढ़ने या देखने को शायद ही मिलेंगे. इस डायरी की एक खासियत यह भी है कि लेखिका केवल यहां के हिंदुस्तानियों के रहन-सहन और स्वभाव को ही दर्ज नहीं करतीं हैं बल्कि वह कविगुरु रवींद्रनाथ ठाकुर के विषय में भी अद्भुत आख्यान रचती हैं. रोज़ा ने अपने इस डायरी में कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर के व्यक्तित्व को रेखांकित करते हुए एक जगह लिखा है. “टैगोर ने साहित्यिक बांग्ला भाषा को गढ़ा है जिसमें एक भी अंग्रेजी शब्द नहीं होता. कवि के होंठों से झरने की धारा की तरह शब्द बह रहे थे, पहले धीरे-धीरे, फिर तीव्र गति से लेकिन हमेशा शांत लय में. आपसी बातचीत में वे अक्सर ऊंची और स्त्री-सुलभ स्वर में बोलते हैं लेकिन जब वे शिक्षा दे रहे हों तो उनकी आवाज़ ऑर्गन के लय-सी लगती है.”

इसमें संदेह नहीं कि रोज़ा कविगुरु की लेखकीय प्रतिभा से बेहद प्रभावित थीं. बावजूद इसके रोज़ा ने कई जगह देश के प्रति, रूढ़ियों के प्रति कविगुरु का जो व्यवहार बना रहा उसका भी बखूबी चित्रण किया है. महिलाओं के प्रति कविगुरु के मन में सम्मान की भावना रही है, लेकिन इस किताब में कई जगह वह महिलाओं को पुरुष से कमतर आंकने और पुरुष को उन पर अपना वर्चस्व स्थापित करने के हिमायती बने हुए भी नजर आते हैं. इस डायरी में शान्तिनिकेतन से थोड़ी ही दूर में बसे हुए संथाल ग्रामों का भी प्रमुखता से जिक्र किया गया है.

लेखिका को संथाल लोगों की संस्कृति, संगीत और इसके अलावा उनके रीति-रिवाज बेहद रोमांचक लगते हैं. इसलिए वह अक्सर संथाल ग्रामों में जाना पसंद करती हैं और वहां उनके बीच रहकर वह शांति का अनुभव करती हैं. भारत के गाँव उन्हें दैन्य होने के साथ-साथ सुखी और लुभावने प्रतीत होते हैं. ‘

अग्निपर्व: शान्तिनिकेतन’ में कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर और महात्मा गांधी के संबंधों को भी लेखिका ने एक अलग दृष्टि से देखने का प्रयास किया है. इस डायरी के माध्यम से ही यह पता लगता है कि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के आरंभ में गांधी जी शान्तिनिकेतन आए हुए थे. उस समय बहुतायत संख्या में शान्तिनिकेतन में पढ़ाने और पढ़ने वाले लोग गांधी जी से बेहद प्रभावित थे. रोज़ा की इस डायरी में यह भी दर्ज है कि डेनमार्क से उसके साथ जहाज में आई हेलगा शान्तिनिकेतन आने के बाद पूरी तरह से हिंदू बन गईं थीं और वह पूरे शान्तिनिकेतन में हैमंती के नाम से पहचानी जाने लगी थीं. यहां हैमंती के कई अनछुए पहलुओं को उद्घाटित करती हुई रोज़ा ने अपनी इस डायरी में लिखा है कि जब सन 1930 में महात्मा गांधी साबरमती में नमक सत्याग्रह की शुरूआत कर रहे थे तब हैमंती पहली भारतीय महिला थीं जो गांधी जी के साथ समुद्र में उतरकर अन्य साथियों की प्ररेणा बनीं थीं.

हैमंती के चरित्र के विषय में इस किताब के माध्यम से हमें यह भी विदित होता है कि किस तरह डेनमार्क से आई हुई एक अभारतीय महिला भारत की स्वतंत्रता आंदोलन में न केवल बढ़-चढ़कर भाग लेती है बल्कि गांधी जी के अन्य साथियों के साथ चार महीने पुणे जेल में सजा भी काटती है. यह भारतीय स्वाधीनता आंदोलन का सर्वाधिक स्याह पक्ष है जिस पर आज तक किसी भी इतिहासकार ने इस प्रसंग को अपने किसी ग्रंथ में दर्ज करने की कोई कोशिश नहीं की है. हेलगा उर्फ हैमंती जिसने इस देश की स्वाधीनता आंदोलन में किसी भी दूसरे भारतीय से आगे बढ़कर हिस्सा लिया वह भारतीय इतिहास में दर्ज होने की जगह भारतीय इतिहास से ही कहीं गुम हो गईं हैं.

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रोज़ा ने अपनी इस डायरी में साबरमती आश्रम से लेकर गांधी जी के अनुयायियों द्वारा भारत की स्वतंत्रता के लिए किए जा रहे प्रयासों और घटनाओं का भी उल्लेख किया है. इसके अलावा इस डायरी में महान स्वतंत्रता सेनानी सुभाष चंद्र बोस का भी प्रमुखता से जिक्र किया गया है और कविगुरु के देश प्रेम की ऐसे अनेकानेक घटनाओं का चित्र अंकित है जो अन्यत्र दुर्लभ हैं.

रोज़ा और उनके पति ज्यूला ने शान्तिनिकेतन में रहने के अलावा भारत के अनेक भू-भागों शिलांग, गुवाहाटी, दार्जलिंग, लाहौर और जम्मू कश्मीर की भी यात्राएं की हैं. लेखिका ने अपनी इस डायरी में इन प्रदेशों का भी बखूबी वर्णन किया है. इस डायरी में शिलांग, गुवाहाटी, दार्जलिंग, लाहौर और जम्मू कश्मीर का भूगोल और इतिहास हर पृष्ठ में इस तरह से दर्ज हैं जैसे रोज़ा डायरी नहीं लिख रहीं थीं, मानो किसी फिल्म की शूटिंग कर रहीं थीं. इस डायरी को पढ़कर लगता है जैसे रोज़ा हर दृश्य को अपनी मेधा के कैमरे में क़ैद कर लेना चाहती थीं. रोज़ा अपने भारत प्रवास के आखरी वर्ष 1931 में श्रीनगर भी गईं और श्रीनगर के प्राकृतिक सौंदर्य के विषय में जो उन्होंने लिखा है वह लगता है जैसे कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा लिखी हुई कोई सुंदर बांग्ला कविता हो. श्रीनगर के सौंदर्य से अभिभूत होकर रोज़ा ने अपनी डायरी में लिखा है “पहाड़ों की ढलान पर बासंती रंगों की छटा एक-दूसरे से होड़ ले रही थी. झीलों में कमल-कमलिनी अपने प्रेम में डूबे थे और किनारों पर पानी की लताएं अपने जड़ों को पानी में डुबोए ऊपर आसमान की ओर देख रहीं थीं. फूल की झाड़ियों में बैठी चिड़ियां अपने गीतों से वातावरण को संगीतमय बना रही थी. रात को पपीहे का सुरीला संगीत सितारों को सम्मोहित कर परियों को बादलों से लदे आकाश से चांद की किरणों के पथ पर फारसी परीकथाओं की तरह धरती पर उतारती है, क्योंकि यह परियों का देश है.”

श्रीनगर ही वह स्थान है जहां इस उपन्यास के केन्द्रीय पात्र अमिय और हैमंती का दोबारा मिलन होता है. हैंमती के भारत-प्रेम के चलते अमिय ने अपनी पत्नी को छोड़ जर्मन युवती गेरट्रूड रूडिगर को अपना लिया था और शान्तिनिकेतन से भागकर गेरट्रूड के साथ श्रीनगर में छिप कर रह रहा था. इधर हैमंती अपने पति अमिय को ढूंढ रही थी, उधर गेरट्रूड का प्रेमी अली हैदर गेरट्रूड को ढूंढ रहा था. अमिय और गेरट्रूड हैंमती को श्रीनगर में ही मिले, दोनों के मिलने पर एक अप्रिय घटना घटी. श्रीनगर में गेरट्रूड के प्रेमी ने पिस्तौल से गेरट्रूड की हत्या कर दी जो महज 23 वर्ष की युवती थी. इस घटना से अमिय को बहुत तकलीफ हुई, पर जब उनकी पत्नी हैमंती ने उसे बताया कि वह उनके बच्चे की मां बनने वाली है तब अमिय सब कुछ भूल उसके पास लौट आता है. अमिय और हैमंती से रोज़ा का संपर्क पिल्सनर जहाज से लेकर किताब के अंत तक बना रहा. क्योंकि ये दोनों शान्तिनिकेतन में रोज़ा और उनके पति ज्यूला के साथ लगभग हर दिन साथ रहे और जब कभी साथ नहीं रहे तब पत्रों के माध्यम से उनका संपर्क सदा बना रहा.

रोज़ा ने उस समय अपनी कश्मीर यात्रा के दरम्यान जिस कश्मीर को बहुत निकट से देखा था उसके विषय में अपनी इस डायरी में लिखा है. “कश्मीर में सारे नौकर मुसलमान ही हैं. रियासत की सारी आबादी की बानवे फीसदी मुसलमान हैं. केवल बाकी आठ प्रतिशत हिंदू हैं जो दफ्तरों में, आराम के ओहदों पर हैं, रियासत का शासक खुद हिंदू है स्वाभाविक तौर पर अपने नौकर-चाकरों में अपने धर्म के लोगों को ही रखता है. इसके अलावा कश्मीरी हिंदू पढ़े-लिखे और सुसंस्कृत हैं जब कि औसतन मुसलमान अनपढ़ हैं. मुसलमानों के बही-खाते भी हिंदू ही संभालते हैं, जिससे उनको पढ़ने-लिखने की फजीहत से आज़ाद रख सके। सन 1931 में रोज़ा जिस कश्मीर का वर्णन कर रहीं थीं और वहां के बाशिंदे मुसलमान जिनकी संख्या बानवे प्रतिशत थी, उनकी दुर्दशा क्या लगभग सौ वर्ष बीत जाने के बाद भी जस की तस नहीं है? आज कश्मीर को लेकर जितना भी हम झूठ का सहारा लें और असलियत से दूर भागने की कोशिश करें लेकिन असलियत तो आज भी यही है कि मुसलमान बहुमत में होते हुए भी निरक्षर, गरीब और शोषित हैं.

दिसंबर 1932 के आखिर में रोज़ा के पति ज्यूला को भारत में पढ़ाने का दूसरा अवसर भी दिया गया मगर उन्होंने इस अवसर को अस्वीकार करते हुए वापस अपने देश हंगरी लौट जाने का फैसला किया. इस तरह जनवरी 1932 में रोज़ा और उनके पति ज्यूला हंगरी के लिए रवाना हो गए. रोज़ा के दिन-प्रतिदिन के इस रोजनामचे पर उनके पति ज्यूला गेरमानूस ने 1972 के संस्करण की भूमिका में लिखा है कि कैसे रोज़ा ने भारत में रोजनामचा लिखना आरंभ किया और 1932 में हंगरी वापस आईं तो वह अपने साथ अठारह मोटे-मोटे खाते लेती आईं थीं. लेकिन यह दुर्भाग्य ही है कि रोज़ा ने अपने इस डायरी के प्रकाशित होने के दो वर्ष पूर्व ही तनाव में आकर आत्महत्या कर ली थी. क्योंकि उस समय उनके पति ज्यूला को यहूदी होने के कारण जेल जाना पड़ा था.

भारत से विदा लेते वक्त रोज़ा की आंखें आंसुओं से लबालब थीं. वह जहाज को पकड़कर रो रहीं थीं और हिंदुस्तान के बारे में सोच रहीं थीं. “मेरा मन, मेरे अपने हिंदुस्तान के लिए तरसने लगा. हिंदुस्तान जो चमत्कारों का देश है. और सब कुछ जो डरावना है, समझ से बाहर है, बेकार अन्धविश्वासों से भरा, लेकिन फिर भी वह बखूबी मेरे चारों ओर लिपटा था. लाल चमकता सूरज समुद्र में डूब रहा था. जादू से इसकी लाली ने मेरी नजरों के सामने एक रक्तिम आभा बिखेर दी- यह आभा बंगाल की अग्नि की ज्वाला थी.” इस तरह हिंदुस्तान की अग्नि को अपने भीतर समाहित कर रोज़ा 18 मार्च 1932 को बुडापेस्ट अपने देश लौट गईं.

 

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जीतेश्वरी साहू हिंदी साहित्य में एम.ए करने के पश्चात समकालीन हिंदी कहानी विषय में शोधरत. आलोचना और कविता के क्षेत्र में उभरता नाम. जन सरोकार से जुड़े सम-सामयिक मुद्दों पर लगातार लेखन. प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर परिचर्चा और समीक्षाएं प्रकाशित. रायपुर (छत्तीसगढ़) में निवास.

संपर्क : 9340791806