एक ऐसा मुस्लिम गांव जहां के घरों में गूंजती है कान्हा की प्रिय बांसुरी

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बढ़ा देते हैं जन्माष्टमी की शोभा…जानिए कैसे

मुजफ्फरपुर (khabargali) भादो माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाई जाने वाली जन्माष्टमी इस बार 6 और 7 सितंबर को मनाई जा रही है। चूंकी जन्माष्टमी दो दिन मनाई जा रही है। देश-विदेशों में कान्हा के भक्तों में जबरदस्त उत्साह जारी है। भक्तगण कृष्ण के भजनों और स्तुतियों में लीन हैं। मंदिरों और बाजारों में जन्माष्टमी की रौनक देखने को मिल रही है। बाजार में कृष्ण जी की पसंदीदा वस्तुएं जैसे मोर पंख और बांसुरी बहुतायत में उपलब्ध होती हैं। ढोल, मर्दन, झांझ, मंजीरा, नगाड़ा, पखावच और एक तारा में सबसे प्रिय बांस निर्मित बांसुरी श्रीकृष्ण को अतिप्रिय है.इसे वंसी, वेणु, वंशिका और मुरली भी कहते हैं।

बांसुरी से निकलने वाला स्वर मन-मस्तिष्क को सुकून देता है। मान्यता है, जिस घर में बांसुरी रहती है, वहां के लोगों में परस्पर प्रेम तो बना ही रहता है, साथ ही सुख-समृद्धि भी बनी रहती है। बांसुरी के संबंध में एक और मान्यता है, जब बांसुरी को हाथ में लेकर हिलाया जाता है तो बुरी आत्माएं दूर भाग जाती है। जब इसे बजाया जाता है तो घरों में शुभ चुम्बकीय प्रवाह का प्रवेश होता है।

अब बांसुरी से जुड़ी एक रोचक तथ्य से हम आपको अवगत कराने जा रहे हैं। बिहार के मुजफ्फरपुर का सुमेरा मुर्गिया चक ऐसा गांव हैं जहाँ नंद गोपाल की प्रिय बांसुरी की गूंज के हर घर में गूंजती है। यहां रहने वाले मुस्लिम परिवार अपने पूर्वजों के समय से बांसुरी बनाने का कार्य करते हुए आ रहे है और हर साल जन्माष्टमी का इंतजार करते है। इस गांव के मुस्लिम परिवारों को साल भर जन्माष्टमी का इंतजार रहता है।

कई पीढ़ियों से बना रहे बांसुरी

दरअसल, मुजफ्फरपुर के कुढ़नी प्रखंड के बड़ा सुमेरा मुर्गिया चक गांव में 25 से 30 मुस्लिम परिवार ऐसे हैं, जो चार पीढ़ियों या उससे भी पहले से बांसुरी बनाने का काम करते हैं। इनका कहना है कि जन्माष्टमी पर्व पर उनकी बांसुरी की बिक्री बढ़ जाती है। मुस्लिम गांव के लोग बताते है कि पुश्त-दर-पुश्त वे लोग बांसुरी बनाने का काम कर रहे हैं और यही परिवार चलाने का एकमात्र जरिया है।

खनक भरी आवाज है विशेषता

 यहां की बनाई बांसुरी बहुत प्रसिद्ध है दरअसल यहां की बांसुरी की खनक भरी धुन अलग होती है। यहां की बांसुरी बिहार के सभी जिलों के अलावा झारखंड, यूपी के साथ नेपाल, भूटान तक जाती है। जन्माष्टमी के समय भगवान कृष्ण के वाद्ययंत्र बांसुरी की बिक्री बढ़ जाती है। दशहरा के मेले में भी बांसुरी खूब बिकती है।

नरकट की लकड़ी से बनती है बांसुरी

 यहां की बांसुरी नरकट की लकड़ी से बनाई जाती है। जिसकी खेती भी यहां के लोग करते हैं। नरहट को पहले छिल कर सुखाया जाता है, उसके बाद इसकी बांसुरी तैयार की जाती है।

10 रुपए से लेकर  300 रुपए तक कीमत

 बताया जाता है कि एक परिवार एक दिन में करीब 100 से अधिक बांसुरी बना लेता है। यहां बनने वाली बांसुरी की कीमत 10 रुपए से लेकर 250 से 300 रुपए तक है। इस गांव में ऐसे लोग भी हैं जो बांसुरी भी बनाते हैं और घूम-घूमकर उसकी बिक्री भी करते हैं। आम तौर पर एक बांसुरी को बनाने में पांच से सात रुपए खर्च आता है।

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कारीगरों की सुध लेने की है जरूरत

बताया जाता है कि अब नरकट के पौधे में कमी आई है, फिर भी यहां के लोग आज भी नरकट से बांसुरी का पारंपरिक तरीके से निर्माण करते हैं। कारीगर बांसुरी निर्माण के लिए दूसरे जिले से भी नरकट को खरीदकर लाते हैं। बांसुरी के कारीगरों की पीड़ा है कि उनकी कला को बचाए रखने के लिए शासन से कोई मदद नहीं मिल रही। उनकी मांग है कि सरकार की ओर से इन्हें आर्थिक सहायता प्रदान की जाए, जिससे यह कला विलुप्त होने से बच सके। बांसुरी बनाने वाले कारीगरों का मानना है कि वर्षों तक अपने दम पर इस कला को बचा कर रखा, लेकिन अब इसके व्यापार को बढ़ाने के लिए सरकार के मदद की दरकार है। इन्हें नरकट की लकड़ी की ही नहीं, बाजार की भी जरूरत है।