"शूल "
"शूल " तुम गुलाब का फूल प्रिये, मै एक शूल बेचारा हूँ ;
तुम बिन अब जाऊँ कहाँ ? तन मन तुझपे वारा हूँ !
तुम जो यूँ खिल जाते हों , फ़िर बावरा मुझे बनाते हों;
और मंद हों जब मुस्काते हों; मेरे दिल को बड़ा सताते हों ......
बन सावन में बारिश सा जब ! मुझ पर झर- झर जाते हों .....
बन जाता हूँ मै नाव सा और, तुझ संग बहता जाता हूँ ;
तू गुलाब का फूल प्रिये , मै एक शूल बेचारा हूँ ;
जो छूने तुझको आयेगा.... भेदा मेरे द्वारा जायेगा;
मुझसे न बच पायेगा ,हों रक्तरंजित जायेगा ;
तुझ संग ही मै जन्मा हूँ , तुझ संग ही मर जाऊँगा;
तू गुलाब बन खुश होती, मै शूल बन तुझे बचाऊंगा ......
तुझको मेरा मोल न हों , पर मै सदा कुर्बान तुझपे जाऊँगा.....
हर हाल में तुझको पाऊँगा वरना मै मर जाऊँगा !!
-प्रिया मिश्रा "वेणी
" अजीब सी उलझन "
"अजीब सी उलझन "
कश्मकश,
द्वन्द ,और फ़िर.....
एक घनी उदासी!
क्यू ?
किसलिए?
किसके लिये?
सवाल कई......
पर जवाब?
जवाब कुछ भी,
कुछ भी नहीं;
डर तुम्हे न खोने का...
पर फ़िर.....
अचानक!
असहजता.....
अहसासों की कश्मसाह्ट......
तुम्हारी बातों से,
उत्पन्न होती उलझने;
कौन हों तुम?
क्यू आये?
यूँ.......
थमी धरती पर !
तूफान बन ,
मेल नहीं कोई ;
मै शांत नदी सी ,
तुम चंचल पवन ;
इठलाना.....
पल भर में फ़िर ,
रुष्ट हों जाना;
माना यॆ स्वभाव है ,
तुम्हारा !!
पर .....
पर ज़रा ;
सुनो...
समझो......
सरल नहीं हर बार ,
मेरा तुम्हारे लिये;
खुद को झुठलाना.....
कहूँ नहीं तो... क्या?
समझोगे नहीं?
जतातीं नहीं तो....
क्या?
कुछ समझती नहीं ?
दुख होता है.....
बेहद !
देख तुम्हारा..
यूँ रुठना.......
क्या यहाँ सिर्फ तुम हों?
मेरा कुछ भी नहीं?
सवाल कई?
पर जवाब......
एक भी नहीं ,
गर हों तुम्हारे पास ,
तो बताना मुझे ;
शायद फ़िर
फ़िर जो उलझन है
वो सुलझ पाये.........
-प्रिया मिश्रा "वेणी"
"प्रेम "
भाषाओं का जहा काम नहीं ,
नफरत का जहा धाम नहीं ;
मूक हों कह देती सब .....
यॆ आँखे हैं जो पढ़ लेती सब;
पास होना ज़रूरी नहीं,
मिलने का कोई रुल नहीं ;
रूह से रूह जुड़ जाती जब.....
समझो प्रेम हुआ हैं तब;
पर....
अब रूह कहां मिल पाती हैं ?
जिस्म तक ही सीमित रह जाती हैं.....
अब प्रेम का कोई मोल नहीं .....
अब न कहना यॆ कोई खेल नहीं...
एक छोड़ दूजा फिराते हैं ;
ऐसे में दिल कहाँ मिल पाते हैं ?
अब आकर्षण ही हुआ हैं प्रेम ;
प्रेम बना बच्चों का खेल .......
"मौन "
शब्द से कही बेहतर हैं मौन
मौन के दौरान भी होती हैं कई बाते
जो नहीं कही जाती
शब्दों के द्वारा
अक्सर
कह जाता हैं
मौन
वो
जो
मुश्किल होता हैं
बतलाना
जतलाना
कह पाना
शब्दों के द्वारा
मौन
हो
जाता हैं
साथी
बन जाता हैं सखा
और
कह जाता हैं
हर वो बात
जो .......
जो शब्द डरता हैं कहने से
कह जाता हैं
और
मिटा जाता हैं
द्वेष
क्रोध
और
फैला जाता हैं
प्रेम ......
कुछ
अद्वितीय
अप्रतिम
अद्भुत सा
होता है अहसास
जब फैलता हैं
हमारे बीच
मौन रूपी
संवाद
-प्रिया मिश्रा "वेणी"-
"बंधन "
.... जहाँ पर ख़त्म हों जाये.... "सारे बंधन", "सारे गुण" , "सारे द्वेष ";
जहाँ मुझमें न खोजा जाये, किसी और का गुण;
किसी और सी बाते; जहाँ मुझ बिन पूर्ण न हों उसकी बाते ,
जहाँ मेरा होना खास हों !
जहाँ मुझमें , मुझे ही पाया जाये; न हो खोज किसी और की;
वहाँ जाना हैं...... अब मुझे ..... इस बंधन के पार, मुक्त हो ,
उन्मुक्त हों ; जहाँ न कोई शोर हों.... हों तो बस .... तृप्ति आत्म संतुष्टि -
-प्रिया मिश्रा "वेणी
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