जानिए होलिका बुरी थी तो फिर उसकी पूजा क्यों की जाती है?
ख़बरगली @ फीचर डेस्क। होली पर प्रहलाद और होलिका से जुडा प्रसंग भी बरबस याद आ जाता है। ये तो सभी जानते हैं कि होलिका दहन के दूसरे दिन रंग पर्व मनाया जाता है। होलिका का दहन बुराई के प्रतीक के तौर पर किया जाता है लेकिन दहन से पहले होलिका की पूजा भी की जाती है। होलिका अगर वास्तव में बुराई की प्रतीक होती तो उसकी पूजा नहीं की जाती। लेकिन क्या आपके मन में ये सवाल आया है कि फिर उसकी पूजा क्यों की जाती है?
घर-घर की अग्नि पूजा ने कालक्रमानुसार सामुदायिक पूजा का रूप लिया
होलिका-पूजन के पीछे एक बात है। जिस दिन होलिका प्रहलाद को लेकर अग्नि में बैठने वाली थी, उस दिन नगर के सभी लोगों ने घर-घर में अग्नि प्रज्वलित कर प्रहलाद की रक्षा करने के लिए अग्निदेव से प्रार्थना की थी। लोकहृदय को प्रहलाद ने कैसे जीत लिया था, यह बात इस घटना में प्रतिबिम्बित होती है। अग्निदेव ने लोगों के अंतःकरण की प्रार्थना को स्वीकार किया और लोगों की इच्छा के अनुसार ही हुआ। होलिका नष्ट हो गई और अग्नि की कसौटी में से पार उतरा हुआ प्रहलाद नरश्रेष्ठ बन गया। प्रहलाद को बचाने की प्रार्थना के रूप में प्रारंभ हुई घर-घर की अग्नि पूजा ने कालक्रमानुसार सामुदायिक पूजा का रूप लिया और उससे ही गली-गली में होलिका की पूजा प्रारंभ हुई।
होलिका और इलोजी की प्रेमकथा
हम लोग होलिका को एक खलनायिका के रूप में जानते हैं लेकिन हिमाचल प्रदेश में होलिका के प्रेम की व्यथा जन-जन में प्रचलित है। इस कथा को आधार मानें तो होलिका एक बेबस प्रेयसी नजर आती है जिसने प्रिय से मिलन की खातिर मौत को गले लगा लिया। होलिका और पडोसी राज्य के राजकुमार इलोजी एक दूसरे से प्रेम करते थे। दोनों का विवाह होना भी तय हो चुका था। विवाह की तिथि पूर्णिमा निकली। इधर हिरण्यकश्यप अपने बेटे प्रहलाद की भक्ति से परेशान था। उसकी महात्वाकांक्षा ने बेटे की बलि को स्वीकार कर लिया। बहन होलिका के सामने जब उसने यह प्रस्ताव रखा तो होलिका ने इंकार कर दिया। फिर हिरण्यकश्यप ने उसके विवाह में खलल डालने की धमकी दी। उसे डर था कि कहीं हिरण्यकश्यप इलोजी को कोई नुकसान ना पहुंचा दे। बेबस होकर होलिका ने भाई की बात मान ली। और प्रहलाद को लेकर अग्नि में बैठने की बात स्वीकार कर ली। वह अग्नि की उपासक थी और अग्नि का उसे भय नहीं था। उसी दिन होलिका के विवाह की तिथि भी थी। इन सब बातों से बेखबर इलोजी बारात लेकर आ रहे थे। और होलिका प्रहलाद को जलाने की कोशिश में स्वयं जलकर भस्म हो गई। जब इलोजी बारात लेकर पहुँचे तब तक होलिका की देह खाक हो चुकी थी। इलोजी यह सब सहन नहीं कर पाए और उन्होंने भी हवन में कूद लगा दी। तब तक आग बुझ चुकी थी। अपना संतुलन खोकर वे राख और लकड़ियाँ लोगों पर फेंकने लगे। उसी हालत में बावले से होकर उन्होंने जीवन काटा। होलिका-इलोजी की प्रेम कहानी आज भी हिमाचल प्रदेश के लोग याद करते है। हिमाचल प्रदेश और राजस्थान में इलोजी को अजर-अमर माना जाता है। मारवाड़ के कई गांवों में उनकी प्रतिमाएं स्थापित हैं और लोग उनकी पूजा-अर्चना करते हैं।
राजस्थान में इलोजी देवता पूजे जाते हैं
इलोजी उस समय के श्रेष्ठ योद्धा और रंग रूप के धनी थी। उन्हें युद्ध में कोई नहीं हरा सकता था। राजस्थान के कई इलाकों में इलोजी को देवता के रूप में पूजा जाता है। इलोजी राजकुमार और वीर-गुणशील थे। राजस्थान में इन्हें पूजने की परम्परा है। राजस्थान में मारवाड़ में मान्यता है कि जिन महिलाओं के कोई संतान नहीं होती वो इलोजी की पूजा करती हैं। शादी वाले जोड़े यहां जाते हैं। पुरुष अपने लिए पौरूष शक्ति मांगते हैं तो महिला पुत्र मांगती है।
मुगल बादशाह भी होली खेलते थे
मुगल काल में भी धूमधाम से होली होती थी ।बादशाह अकबर, हुमायूँ, जहाँगीर, शाहजहाँ और बहादुर शाह ज़फर होली के तैयारियाँ प्रारंभ करवा देते थे। बादशाह अकबर के महल में सोने चाँदी के बड़े-बड़े बर्तनों में केवड़े और केसर से युक्त टेसू का रंग घोला जाता था और राजा अपनी बेगम और हरम की सुंदरियों के साथ होली खेलते थे। शाम को महल में उम्दा ठंडाई, मिठाई और पान इलायची से मेहमानों का स्वागत किया जाता था और मुशायरे, कव्वालियों और नृत्य-गानों की महफ़िलें जमती थीं। जहाँगीर के समय में महफ़िल-ए-होली का भव्य कार्यक्रम होता था। शाहजहाँ तो होली को ईद गुलाबी के रूप में धूमधाम से मनाते थे। बहादुरशाह ज़फर भी होली खेलने के शौकीन थे। जफर शायर भी थे, होली को लेकर उनकी काव्य रचनाएँ आज तक सराही जाती हैं। मुगल काल में होली के अवसर पर लाल किले के पीछे यमुना नदी के किनारे आम के बाग में होली के मेले लगते थे।
बरसाने की लठमार होली
बरसाने की लठमार होली फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की नवमी को मनाई जाती है। इस दिन नंद गाँव के ग्वाल बाल होली खेलने के लिए राधा रानी के गाँव बरसाने जाते हैं और बरसती लाठियों के साए में होली खेली जाती है। इस होली को देखने के लिए बड़ी संख्या में देश-विदेश से लोग बरसाना आते हैं। मथुरा से कुछ दूर कोसी शेरगढ़ मार्ग पर फालैन गाँव है जहाँ एक अनूठी होली होती है। गाँव का एक पंडा होली की धधकती आग में से निकल कर प्रह्लाद की याद को ताज़ा कर देता है।
मशहूर है मप्र का भगौरिया पर्व
मालवा में होली के दिन लोग एक दूसरे पर अंगारे फेंकते हैं। ये लोग ऐसा मानते हैं कि इससे होलिका नामक राक्षसी का अंत हो जाता है। राजस्थान में होली पर नुक्कड़ नाटक या तमाशे होते हैं। मध्य प्रदेश के भील होली को भगौरिया कहते हैं। भील युवकों के लिए होली अपने लिए प्रेमिका को चुनकर भगा ले जाने का त्योहार है। होली के मेले में भील युवक मांदर की थाप पर सामूहिक नृत्य करते हैं। नृत्य करते-करते जब युवक किसी युवती के मुँह पर गुलाल लगाता है और वह भी बदले में गुलाल लगा देती है तो मान लिया जाता है कि दोनों विवाह सूत्र में बँधने के लिए सहमत हैं।
बिहार में कुर्ता फाड़ होली
बिहार में होली खेलते समय सामान्य रूप से पुराने कपड़े पहने जाते हैं। मिथिला प्रदेश में होली खेलते समय लड़कों के झुंड में एक दूसरे का कुर्ता फाड़ देने की परंपरा है। रंग पंचमी के दिन मालवा और गोवा की शिमगो के साथ होली का समापन होता है।
- Log in to post comments