साहित्य डेस्क (खबरगली)
डॉ. चित्रा पाण्डेय, मनोविश्लेषक एवं परामर्शदाता की रिपोर्ट आज के और कल के बचपन के बीच के गहरे अंतर को उजागर करती है, जहाँ एक पीढ़ी ने बेपरवाह बचपन जिया, वहीं आज की पीढ़ी सुविधा-संपन्न होने के बावजूद कहीं न कहीं अपने मूल्यों से दूर होती जा रही है।
पहले का बचपन: अनुशासन और सम्मान का पाठ
पहले के समय में, बचपन का अर्थ था सादगी, माता-पिता का अनुशासन मानना और उनके फैसलों का सम्मान करना। उस दौर में, जीवन के संघर्षों ने बच्चों को संयम, कृतज्ञता और संतोष का महत्व सिखाया। बच्चों को पता था कि हर चीज के पीछे मेहनत और मूल्य छिपा है।
आज का बचपन: सुविधाएँ हैं, संस्कार नहीं?
आज का बचपन सुविधाओं से भरा हुआ है। बच्चों के पास विकल्प हैं, साधन हैं, और माता-पिता का दोस्ताना व्यवहार भी है। फिर भी, एक नकारात्मक दृश्य उभरता है—बचपन स्वयं को बालक समझने को तैयार नहीं, अभिभावकों का सम्मान करने को तैयार नहीं, और आक्रोश, जिद व तथाकथित स्वतंत्रता को छोड़ने को तैयार नहीं। रिपोर्ट के अनुसार इस व्यवहार के मूल में बिना संघर्ष किए सुविधाओं की उपलब्धता है। बच्चे इन चीजों को अपना अधिकार मान बैठे हैं, न कि अर्जित की जाने वाली वस्तुएँ। उन्हें कृतज्ञता, संतोष और जीवन मूल्यों का ज्ञान नहीं कराया जा रहा है।
कारण और समाधान: संवाद की आवश्यकता
रिपोर्ट बताती है कि अभिभावक भी अपने संघर्षों और संस्मरणों को बच्चों के साथ साझा करना भूल गए हैं। मोबाइल और इंटरनेट के इस आपाधापी के समय में, अभिभावकों को बच्चों का पालन-पोषण एक चुनौती बन चुका है।
समाधान: अर्जन का मूल्य सिखाएँ
बच्चों को यह एहसास कराना ज़रूरी है कि सुविधाओं का एक मूल्य होता है और उन्हें अर्जित किया जाना चाहिए।
संवाद स्थापित करें
अभिभावकों को अपने बच्चों के साथ अमूल्य पल बिताने चाहिए, अपने जीवन के अनुभवों और संघर्षों को साझा करना चाहिए।
जीवन मूल्य स्थापित करें
कृतज्ञता, संतोष और सही-गलत का बोध कराना आवश्यक है, ताकि बच्चे सहज प्राप्ति और अर्जन के बीच अंतर कर सकें। अंततः, हमने बच्चों को जैसी दुनिया दिखाई है, वे उसी में जीने के आदी हो चुके हैं। यह माता-पिता की ज़िम्मेदारी है कि वे बच्चों को जीवन के वास्तविक मूल्यों को सीखने, सहेजने और संवारने में मदद करें।
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