राधिका मिश्रा 'मनखुश ' की तीन अद्भुत श्रृंगारिक रचनाऐं
ख़बरगली @ सहित्य डेस्क
चाह......
नहीं चाहिए ये आसमानी चाँद हमें, तुम बस अपनी मुलाकात का एक छोटा सा सितारा दे दो,
थक से गए जिंदगी के धारों मे बह बह के बस ज़रा सा अपने जज्बातों का किनारा दे दो।
शाम ओ सहर मैं तेरे इन्तजार मे गुजार दूँ, बस किसी रात तुम अपने आगोश का सहारा दे दो।
इस खामोश रात मे ये बरसते अब्र मेरे ही आसूं है, बस तुम मिलन की एक खुशी का कतरा दे दो।
मेरे जिस्म ओ कल्ब बस तेरे लिए ही है, तुम भी खुद पर कुछ हक हमारा दे दो।
सारी कायनात ख़ुश्क है मेरा तुम्हारे बिना, बस अपनी नजरों का हमें एक नजारा दे दो।
बना लू तुझे मैं अपनी नजरों के असीर, बस कुछ पल के लिए अपनी बांहों मे गुजारा दे दो।
सोचा न था.........
सोचा ना था तुमसे मिलने से पहले बिछडना होगा, तुझे छुने से पहले तुझे छोड़ना होगा।।
थक गई हूँ तुझे दुनिया से छुपाते छुपाते अजनबी, अब सारी दुनिया से तुझे रूबरू कराना होगा।।
वक़्त की ये रफ्तार से डर लगता है हमें, अगर इस बार बिछडे तो आपको हमें खोना होगा।।
जिसे चाहूं उसे जी भर के देख लू उसे महसूस करुँ ज़रा छू के, सोचा ना था,जो टुटा वो सपना सलोना होगा। तू मेरी दुआ है,तुझसे मेरी इश्क़ की इब्तिदा है, तू ही मेरे इश्क़ का इंतेहा होगा।।
पाषाण पुरुष !
तुम्हें ये स्त्री प्रेम की मूरत लगती,, कितनी सुन्दर ये प्रेम की सूरत होती। तुम ठहरे पाषाण ह्रदय वाले पुरुष, तुम्हें ये नारी कहाँ मीरा और राधा लगती।।
तुम्हें स्त्री हमेशा से लगती कामुकता से ओत-प्रोत, जो लगती तुम्हें वासना अग्नि बुझाने का स्त्रोत। तुम होते जो निश्च्छल तो कहाँ तुम्हें ये वासना की व्याधि लगती।। तुम्हें ये नारी कहाँ मीरा और राधा लगती!
जो तुम देख पाते काश नारी के मन की सुंदरता, पहचान लेते गर उनके निश्च्छल मन की उदारता। जो होता अहसास की उसे भी प्यारी अपनी आजादी लगती! तुम्हें ये नारी कहाँ मीरा और राधा लगती!
- राधिका मिश्रा 'मनखुश'
(स्वरचित)
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