फीचर(khabargali)। "तुम बहुत चुप रहती हो, ऐसा ही हाल रहा, तो तुम आगे कुछ नहीं कर पाओगी" ये बात लावे की तरह, उसके दिल की कोमल बगिया से होते हुए आंखों से बहने लगी और उसने ये बात गांठ बांध ली कि- मैं ज़िन्दगी में वो काम कर जाऊंगी, जिसकी बदौलत गांव के लोग मुझे "भैंसमुण्डी का दीया कहेंगे।"
ये कहानी है- चुनचुनिया की, रामेश्वरी की।
छत्तीसगढ़ का उत्तर बस्तर कांकेर ज़िला और भानुप्रतापपुर तहसील का एक छोटा सा गांव भैंसमुण्डी, जहां चिमनी और अंगीठी की आंच ने उजाला किया, रामेश्वरी की वीरान ज़िन्दगी में। पैसों की कमी और साधन का अभाव किसी के सपनों को कैसे पंख लगा सकता है- ये बात रामेश्वरी की ज़िन्दगी में साकार होती है।
जंगल से लकड़ियां इकट्ठा कर लाती
पूर्ण रूप से आदिवासी क्षेत्र और ग्राम पंचायत टेढ़ाईकोंदल का आश्रित गांव भैंसमुण्डी में मज़दूरी और बरसात में खेती की आस करने वाले परिवार के घर दूसरी संतान के रूप में रामेश्वरी ने जन्म लिया। चार भाई बहनों में दूसरे नंबर की रामेश्वरी, बचपन से ही पढ़ाई और बाकी चीज़ों में अव्वल रही। गांव में बिजली नहीं, लेकिन ज्ञान का प्रकाश फ़ैलाने के लिए 8वीं तक स्कूल था। रामेश्वरी स्कूल जाती और स्कूल से आने के बाद, माँ के साथ घर का काम करती और जंगल से लकड़ियां इकट्ठा कर लाती। बड़े बुज़ुर्गों की लाडली और सबकी चहेती रामेश्वरी को सबकी बातें सुनना बहुत अच्छा लगता और वो अपनी सहेलियों के साथ भी इसे बांटने लग जाती।
"तेरे अंदर की आग को और तपना ज़रूरी है, ताकि तू प्रकाश के पैमाने पर खरा उतर सके।" यही हुआ रामेश्वरी के साथ, जिसके नाम में राम और ईश्वर दोनों का नाम एक साथ आता, उसको उसके मन ने ही टहलाना शुरू कर दिया और वो 8वीं में फ़ेल हो गई। किशोरावस्था की उलझनें, साधनों का अभाव और मन की व्यथा इन सबने मिलके रामेश्वरी को कुछ समय के लिए बांध तो दिया था, लेकिन वे उसे पूरी तरह जकड़ नहीं पाए। वो फ़िर उठी, अपनी आंखों के आंसू ख़ुद पोंछे और ख़ुद की प्रेरणा से एक साल बाद उसने 8वीं की परीक्षा पास कर ही ली।
भैंसमुण्डी में उस समय तक टेलीविजन नहीं था, लेकिन कभी रेडियो की आवाज़ रामेश्वरी के कानों तक पहुंच ही जाती। अब रामेश्वरी को रेडियो की आबोहवा ने अपनी तरफ़ खींचना शुरू कर दिया और जब भी वो कभी कभार रेडियो सुनती, तो उसका मन भावविभोर हो उठता और वो रेडियो पर बोलने वाले व्यक्तियों की आवाज़ों से प्रभावित होने लगती। ज़िद में आकर उसने एक दिन अपने पिता से कहा कि- बाबूजी, इस बार धान की फ़सल के बाद, उसके पैसों से रेडियो ख़रीद लाना। रेडियो घर आया और एक बार फ़िर रामेश्वरी का दिल आवाज़ों की दुनिया में खोने लगा।
पत्रकारिता में स्नातक
गांव में उस समय सिर्फ़ 8वीं तक ही स्कूल था, लेकिन रामेश्वरी के इरादे तो "भैंसमुण्डी का दीया" बनने का था, जिसके लिए वो अपने रास्ते पर निकल पड़ी। 2005 में भानुप्रतापपुर के हॉस्टल में, अपने परिवार से दूर रहकर भी रामेश्वरी ज्ञान के नज़दीक रही और अब उसने 12वीं तक की शिक्षा प्राप्त कर ली। 12वीं के बाद उसकी असली परेशानी शुरू हुई, क्योंकि वक़्त अपने किए वादे के मुताबिक हमें तराशता जो रहता है। रामेश्वरी अपने परिवार की आर्थिक स्थिति के बारे में सोचती, तो उसका इरादा डगमगाने लगता, लेकिन उसका जुनून उसे थाम लेता। 12वीं के बाद रामेश्वरी ने साल 2009-10 से लेकर 2012-13 तक भानुप्रतापपुर के महर्षि वाल्मीकि शासकीय महाविद्यालय से, उस समय के दूसरे बैच की छात्रा के रूप में पत्रकारिता में ग्रेजुएशन किया।
पत्रकारिता की पढ़ाई करने के बाद, रामेश्वरी 2012-13 में पोस्ट ग्रेजुएशन करने छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर आई, तो यहां उसका सफ़र और कठिन होने वाला था।
कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया विभाग में पोस्ट ग्रेजुएशन की जिस पढ़ाई के लिए रामेश्वरी आई थी, एक दिन उसकी टीचर ने उसके इरादों को हवा देकर आग को दृढ़ संकल्प में बदलने का काम किया।
हुआ कुछ यूं कि- क्लास में रामेश्वरी अपने साथियों के साथ पढ़ाई कर रही थी और वो गांव से निकलकर आई थी इसलिए बहुत चुप रहती थी। इसी के कारण उसकी टीचर ने कड़े शब्दों में उससे कहा- "तुम बहुत चुप रहती हो, ऐसा ही हाल रहा, तो तुम आगे कुछ नहीं कर पाओगी" ये बात लावे की तरह रामेश्वरी के दिल की कोमल बगिया से होते हुए आंखों से बहने लगी और उसने ये बात गांठ बांध ली और प्रण कर लिया कि- मैं ज़िन्दगी में वो काम कर जाऊंगी, जिसकी बदौलत गांव के लोग मुझे "भैंसमुण्डी का दीया कहेंगे।"
अपने इरादों को पूरा करने के लिए वो जी जान से लग गई, लेकिन अब भी उसके पास साधन की कमी थी। उस समय जब दुनिया संचार क्रांति के सबसे आधुनिक साधन मोबाईल पर इंटरनेट का इस्तेमाल करना जान चुकी थी, रामेश्वरी अपने पास रखे बटन तकनीक वाले फ़ोन को लेकर बस यही सोचती कि- काश! अगर मेरे पास भी साधन हो, तो मैं अपने पंख फ़ैलाकर, सफ़लता को पकड़ लेती। रामेश्वरी की मंज़िल आसान बनाने में वैसे तो कई लोगों का हाथ रहा, लेकिन उसके दो दोस्तों ने उसका जो साथ दिया, हर तरह से उसकी मदद की, वो रामेश्वरी के लिए मील का पत्थर साबित हुआ।
आकाशवाणी में रामेश्वरी
राह का कांटा, पैरों को मंज़िल तक जाने से रोक नहीं सकता और थोड़े समय बाद ही 2014 में आकाशवाणी में बहुत सारे अनुभागों के कार्यक्रम प्रस्तुतकर्ता के लिए ऑडिशन रखा गया। इस ऑडिशन में रामेश्वरी की उस टीचर ने भी भाग लिया, जिनकी बात ने रामेश्वरी को सहीं दिशा में काम करने के लिए प्रेरित किया था। ऑडिशन हुआ, रामेश्वरी पास हो गई और अब उसके अरमान पूरे होने वाले थे।
हॉस्टल में रहके वो जब समाचार पत्र पढ़ती, तो उसकी जानकारी रामेश्वरी को देश- दुनिया के बारे में जानने के लिए काफ़ी मदद करती थी। जब रामेश्वरी का रेडियो पर युववाणी अनुभाग में पहला कार्यक्रम हुआ, तो उसकी इतनी तारीफ़ हुई, जिसकी भनक उसकी टीचर को भी लगी और उन्होंने रामेश्वरी से स्क्रिप्ट दिखाने को कहा। रामेश्वरी की लिखी स्क्रिप्ट पढ़कर उनकी टीचर गदगद हो गई और उस दिन रामेश्वरी ने अपने संकल्प को साकार करने की तरफ़ मज़बूती से कदम आगे बढ़ा दिया।
क्यों कहते हैं लोग "चुनचुनिया"
2014 से लेकर 2019 तक रामेश्वरी ने युववाणी अनुभाग में कम्पियर के तौर पर कार्य किया और उसके हर कार्यक्रम की बहुत ज़्यादा प्रशंसा होती रही। आकाशवाणी में उसका नाम चुनचुनिया पड़ गया, ये नाम उसे दिया आकाशवाणी के एक दोस्त ने। इसका किस्सा भी बहुत प्यारा है- एक दिन रामेश्वरी युववाणी के अपने साथी कम्पियरों के साथ बात करके खिलखिला रही थी और उसकी हंसी एक दोस्त नोटिस कर रहा था, तो उसने कहा- छोटी हो, लेकिन बड़ा धमाका करती हो और आज से तुम्हें हम लोग चुनचुनिया कहेंगे। बस उसी दिन से सब लोग रामेश्वरी को चुनचुनिया कहते हैं।
केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय को दी अपनी आवाज़
युववाणी में कार्यक्रम करते करते रामेश्वरी को केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के लिए अपनी आवाज़ देने का अवसर भी मिला। युववाणी के बाद वो समाचार अनुभाग में चली गई। "संघर्ष के चाक पर जिसने अपने जुनून की मिट्टी डालकर, मंज़िल को आकार दिया" उस रामेश्वरी के चर्चे अब सब तरफ़ होने लगे। आकाशवाणी में काम के दौरान रामेश्वरी, एक और बड़ी ज़िम्मेदारी के साथ भारतीय जनता पार्टी जैसी राजनीतिक पार्टी के सोशल मीडिया विभाग में लेखन करती रही, ये सिलसिला लगभग 18 महीने चला। रामेश्वरी की उड़ान अभी भी जारी है और वो अभी छत्तीसगढ़ के एक बड़े मीडिया संस्थान IBC24 में बतौर प्रोडक्शन एक्ज़क्यूटिव काम कर रही हैं और ये कारवां भी 18 महीने का हो चुका है।
सम्मान देते कहते हैं "भैंसमुण्डी का दीया"
आज जब रामेश्वरी अपने गांव भैंसमुण्डी जाती हैं, तो उन्हें उनके गांव के लोग "भैंसमुण्डी का दीया" कहकर उनका सम्मान करते हैं और कहते हैं कि- इस गांव की बेटी ने अपने माता-पिता के साथ, हम लोगों का सीना भी चौड़ा कर दिया। आज एक छोटे से गांव की रामेश्वरी न सिर्फ़ अपने पैरों पर खड़ी है, बल्कि अपनी बहन को साथ रखकर उसकी पढ़ाई और ज़रूरतों का ख़र्च भी ख़ुद देख रही है साथ ही साथ अपने परिवार का सहयोग भी कर रही है।
सफ़लता की मिसाल तो हर कोई देता है, लेकिन जो अपने कार्यों से इसे करके दिखता है, वास्तव में वो सबके लिए आदर्श प्रस्तुत करता है। रामेश्वरी ने संघर्ष को अपने जीवन का साथी बनाया और आसमान की बुलंदियों को अपने हुनर के सहारे छोटा साबित कर दिया।
आख़िर में सिर्फ़ इतना ही कि-
क्यों भागूं मैं मुसीबतों से,क्यों डर जाऊं तूफ़ानों से,
मेरे हुनर का जुनून तो,सैलाबों पर वार करता है।
-साभार- सुमन्त यादव
- Log in to post comments